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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


विद्रोही मुंशी प्रेम चंद

चचाजी ने मेरी तरफ आँखें फाड़कर कहा, 'क्यों ?'
मैंने उसी निर्भीकता से जवाब दिया -'इसीलिए कि मैं इस विषय में स्वाधीन रहना चाहता हूँ।'
चचा साहब ने जरा नर्म होकर कहा, 'मैं अपनी बात दे चुका हूँ, क्या तुम्हें इसका कुछ खयाल नहीं है ?' मैंने उद्दण्डता से जवाब दिया। 'जो बात पैसों पर बिकती है, उसके लिए मैं अपनी जिन्दगी नहीं खराब कर सकता।'
चचा साहब ने गम्भीर भाव से कहा, 'यह तुम्हारा आखिरी फैसला है ?'
'जी हाँ, आखिरी।'
'पछताना पड़ेगा।'
'आप इसकी चिन्ता न करें। आपको कष्ट देने न आऊँगा।'
'अच्छी बात है।'
यह कहकर वह उठे और अन्दर चले गये। मैं कमरे से निकला और बैरक की तरफ चला। सारी पृथ्वी चक्कर खा रही थी, आसमान नाच रहा था और मेरी देह हवा में उड़ी जाती थी। मालूम होता था, पैरों के नीचे की
जमीन है ही नहीं। बैरक में पहुँचकर मैं पलंग पर लेट गया और फूट-फूटकर रोने लगा। माँ-बाप, चाचा-चाची, धन-दौलत, सबकुछ होते हुए भी मैं अनाथ था। उफ ! कितना निर्दय आघात था !
सबेरे हमारे रेजिमेंट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ। मुझे आँखें-सी मिल गयीं। अब लखनऊ काटे खाता था। उसके गली-कूचों तक से घृणा हो गयी थी। एक बार जी में आया, चलकर तारा से मिल लूँ; मगर फिर वही शंका हुई क़हीं वह मुखातिब न हुई तो ? विमल बाबू इस दशा में भी मुझसे उतना ही स्नेह दिखायेंगे, जितना अब तक दिखाते आये हैं, इसका मैं निश्चय न कर सका। पहले मैं एक धानी परिवार का दीपक था, अब एक अनाथ युवक, जिसे मजूरी के सिवा और कोई अवलम्ब नहीं था। देहरादून में अगर कुछ दिन मैं शान्ति से रहता, तो सम्भव था, मेरा आहत ह्रदय सँभल जाता और मैं विमल बाबू को मना लेता; लेकिन वहाँ पहुँचे
एक सप्ताह भी न हुआ था कि मुझे तारा का पत्र मिल गया। पते को देखकर मेरे हाथ काँपने लगे। समस्त देह में कंपन-सा होने लगा। शायद शेर को सामने देखकर मैं इतना भयभीत न होता। हिम्मत ही न पड़ती थी कि उसे खोलूँ। वही लिखावट थी, वही मोतियों की लड़ी, जिसे देखकर मेरे लोचन तृप्त-से हो जाते थे, जिसे चूमता था और ह्रदय से लगाता था, वही काले अक्षर आज नागिनों से भी ज्यादा डरावने मालूम होते थे। अनुमान कर रहा था कि उसने क्या लिखा होगा; पर अनुमान की दूर तक दौड़ भी पत्र के विषय तक न पहुँच सकी। आखिर, एक बार कलेजा मजबूत करके मैंने पत्र खोल डाला। देखते ही आँखों में अन्धेरा छा गया। मालूम हुआ, किसी ने शीशा पिघलाकर पिला दिया। तारा का विवाह तय हो गया था। शादी होने में कुल चौबीस घंटे बाकी थे। उसने मुझसे अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगी थी और विनती की थी कि - 'मुझे भुला मत देना। पत्र का अंतिम वाक्य पढ़कर मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। लिखा था यह अंतिम प्यार लो। अब आज से मेरे और तुम्हारे बीच में केवल मैत्री का नाता है। मगर कुछ और समझूँ तो वह अपने पति के साथ अन्याय होगा, जिसे शायद तुम सबसे ज्यादा नापसंद करोगे। बस इससे अधिक और न लिखूँगी। बहुत अच्छा हुआ कि
तुम यहाँ से चले गये। तुम यहाँ रहते, तो तुम्हें भी दु:ख होता और मुझे भी। मगर प्यारे ! अपनी इस अभागिनी तारा को भूल न जाना। तुमसे यही अन्तिम निवेदन है।ट
मैं पत्र को हाथ में लिये-लिये लेट गया। मालूम होता था, छाती फट जायगी ! भगवान्, अब क्या करूँ ? जब तक मैं लखनऊ पहुँचूँगा, बारात द्वार पर आ चुकी होगी, यह निश्चय था। लेकिन तारा के अंतिम दर्शन करने की
प्रबल इच्छा को मैं किसी तरह न रोक सकता था। वही अब जीवन की अंतिम लालसा थी। मैंने जाकर कमांडिंग आफिसर से कहा, 'मुझे एक बड़े जरूरी काम से लखनऊ जाना है। तीन दिन की छुट्टी चाहता हूँ।'
साहब ने कहा, 'अभी छुट्टी नहीं मिल सकती। '
'मेरा जाना जरूरी है।'
'तुम नहीं जा सकते।'
'मैं किसी तरह नहीं रुक सकता।'
'तुम किसी तरह नहीं जा सकते।'
मैंने और अधिक आग्रह न किया। वहाँ से चला आया। रात की गाड़ी से लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया। कोर्ट-मार्शल का अब मुझे जरा भी डर न था। जब मैं लखनऊ पहुँचा, तो शाम हो गयी थी। कुछ देर तक मैं प्लेटफार्म से दूर खड़ा खूब अन्धेरा हो जाने का इन्तजार करता रहा।

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